Wednesday 3 December 2014

राजनीति और सिस्टफम के खोखलेपन पर उंगली करती जेड प्लस


जेड प्‍लस और उंगली दोनों ही फिल्‍में बड़े-बडे नामों और सौ करोडी क्‍लब की भागम-भाग से काफी दूर  रहकर करप्‍ट सिस्‍टम और राजनीति को उंगली दिखा रही हैं

पूजा मेहरोत्रा
सिनेमा मतलब इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट। इस इंटरटेनमेंट में यदि हास्‍य व्‍यंग्‍य की छौंक के साथ आमलोगों को जोड़ दिया जाए तो यकीन मानिए फिल्‍म फिल्‍म नहीं रह जाती फिर  वह पूरे सिस्‍टम के खिलाफ उंगली बन जाती है। हमारी राजनीति भी और सिस्‍टम भी कुछ ऐस ही है। देश में गरीबों की क्‍या समस्‍याएं हैं वह राजनेताओं को पता ही नहीं होता है। गरीब देशवासियों की मांग रोटी कपड़ा और मकान से आगे नहीं बढ़ रही है। बेरोजगारी बेतहाशा बढ रही है और राजनेता उन्‍हें कालाधन, बैंक खाता के सपने दिखा रहे हैं। सांप्रदायिकता और जातिवाद की गंदी राजनीति कर अपना उल्‍लू साध रहे हैं। गरीबों का उपयोग वोट बैंक से ज्‍यादा कुछ नहीं है।  हमारे सिस्‍टम में इतना भ्रष्‍टाचार व्‍याप्‍त है कि लोग आजिज आ चुके हैं। पिछले दिनों जिस तरह से उत्‍तर प्रदेश के इंजीनियर के यहां से अरबों की संपत्ति का मिली है वह यह बताती है कि उसने कितने मासूमों की मेहनत की कमाई को डकार गया होगा। यादव सिंह को महज एक पयादा भर है शंतरज के इस खेल में सिपाही से लेकर राजा रानी तक सब गरीबों को ही लूटने में उनका हक मारने में लगे हैं। पुलिसवाले हर चौक चौराहों पर एंट्री लेकर हर दिन हजारों कमा रहे हैं, मजबूर जनता मजबूर है दे रही है। हर दिन सड़क दुर्घटना में सैंकड़ो लोग जान गंवा देते हैं इसकी एक वजह ड्राइविंग लाइसेंस देने वाली एजेंसी द्ववारा बिना ड्राइविंग का टेस्‍ट लिए लाइसेंस दिया जाना है। समाज के ऐसे ही मुददो को उजागर करने और भ्रष्‍टाचार को जड़ से मिटाने के लिए कुछ युवा निकल पड़ते हैं करप्‍ट सिस्‍टम को उंगली करने। वे कानून की नजर में भले अपराधी होते हैं जनता उन्‍हें मसीहा के रूप में देखती है। जो काम नेताओं को करना चाहिए वे नकाबपोश कर रहे होते हैं। समाज में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार, अपराध और गुंडागर्दी को ध्‍यान में रखकर 28 नवंबर को ऐसी ही दो फिल्‍में रिलीज हुईं, जेड प्‍लस और उंगली। दोनों ही फिल्‍में बड़े-बडे नामों और सौ करोडी क्‍लब की भागम-भाग से काफी दूर रहकर बडी ही खामोशी से युवाओं में अलख जगाने का काम कर रही हैं। दबीं जुबां से जहां ये फिल्‍में युवाओं में पसंद की जा रही है वहीं करप्‍ट सिस्‍टम और राजनीति को उंगली भी दिखा रही हैं ।
 युवाओं का एक ग्रुप किस तरह समाज में फैले भ्रष्‍टाचार, अपराध को हटाना चाहता है और उसके लिए वह किस किस तरह के पैंतरे अपनाता है फिल्‍म में बेहतरीन तरीके से फिल्‍माया गया है। रातों रात नकाबपोश युवा जनता के मसीहा बन जाते हैं लेकिन कानून और पुलिस की नजर में वे अपराधी होते जाते हैं। जबकि दूसरी फिल्‍म जेड प्‍लस राजनीति खोखलेपन को दर्शा रही है। फिल्‍म के द्वारा लेखक और निर्देशक ने आम जनता को आगाह किया है कि राजनेता अपने फायदे के लिए आपको उपयोग कर रहे हैं। संभल जाइए। दोनों ही फिल्‍में आम जीवन के बहुत करीब हैं। जेड प्‍लस राजनीति और राजनेताओं पर कटाक्ष है इसमें निर्देशक ने जनता को आगाह किया है कि कुर्सी बचाए रखने के लिए राजनेता कैसे कैसे दांव पेंच लगाते हैं और अपने फायदे के लिए किसी को भी सूली पर चढाने में हिचकिचाते नहीं हैं। राजनेताओं के साथ अफसरशाही भी नेताओ की नजर में अपनी छवि बनाए रखने के लिए भोले भाले लोगों ठगते हैं। जेड प्‍लस फिल्‍म के लेखक और पत्रकार रामकुमार सिंह ने इस फिल्‍म में अपने पत्रकारिता से जुड़े अनुभव को बड़े ही कसाव के साथ पेश किया है।
   आम आदमी की परेशानी का फायदा राजनीति में किस तरह से उठाया जाता है इसे व्‍यंग्‍यात्‍मक तरीके से निर्देशक चंद्रप्रकाश द्वविेदी ने परोसने की कोशिश की है। मिली जुली पार्टियों की सरकार अपना हित साधने में किस-किस तरह के दांव लगाते हैं यह फिल्‍म उसका बेहतरीन नमूना है। देश का प्रधानमंत्री हिंदी नहीं जानता है। उसका पूरा काम उसके एक अधिकारी के हाथों द्वारा ही होता है। कहानी में मोड़ तब आता है जब एक विशेष समुदाय के पंचर बनाने वाले को राजनीतिक फायदे के लिए ‘जेड प्‍लस’ सुरक्षा दी जाती है फिर उसे नेता बनने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। एक व्‍यक्ति जो दो वक्‍त की रोटी भी बामुश्किल जुटा पा रहा है, जिसके घर में जरूरी का सामान नहीं है, महिलाओं के जाने के लिए पखाना तक नहीं है उसे सरकार सुरक्षा के नाम पर ‘जेड प्‍लस’ सुरक्षा मुहैया कराती है। वह भी इसलिए क्‍योंकि प्रधानमंत्री को उस गरीब ने जो अपनी परेशानी प्रधानमंत्री उसे समझने में असक्षम थे। जेड प्‍लस सुरक्षा मिलने के बाद किस तरह वह पंचर बनाने वाला अपने परिवार के साथ प्रलोभनों में फंसता चला जाता है और उसकी जिंदगी दिन ब दिन दूभर होती जाती है। वह उस सुरक्षा घेरे से भागता है और फिर उसी सुरक्षा घेरे मे और जकड़ दिया जाता है। यदि सरकार अपनी नामसमझी में लगाया गया निर्णय हटाती है तो उसकी बदनामी होगी सरकार की नाकामियों पर इससे अच्‍छा कटाक्ष हो ही नहीं सकता। देश का प्रधानमंत्री एक लाइन हिंदी नहीं बोल पाता है। प्रधानमंत्री की भूमिका में कुलभूषण खरबंदा छाप छोड्ते नजर आये हैं । फिल्‍म में एक चीज जो बार बार दर्शकों का ध्‍यान आकर्षित करती है कि किस तरह कई पार्टियों से बनी मिली जुली सरकार हमारे देश के लिए घातक है। सरकार बचाने के लिए प्रधानमंत्री को कितना दबाव झेलना पड़ता है। कैसे एक नेता अंधविश्‍वास में घिरता चला जाता है। इस फिल्‍म के द्वारा जो एक चीज और उजागर होती है वह यह है कि असल जीवन में आम लोगों की  समस्‍याएं है क्‍या, देश की गरीबी शिक्षित कैसे हो, देश की गरीबी को दूर करने के लिए हमें क्‍या कदम उठाने चाहिए, हमारी एजुकेशन सिस्‍टम में सुधार कैसे हो इस देश के गरीब की वास्‍तविक समस्‍या है।  प्रधानमंत्री उसे समझता ही नहीं है। वह यह भी नहीं जानता कि क्‍या पॉलिसी बनाए जिससे देश की गरीबी दूर हो। फिल्‍म की कहानी भले ही एक गरीब पंचर लगाने वाले के इर्दगिर्द घूमती है लेकिन यह भारतीय गरीबों के बहुत ही करीब है। प्रधानमंत्री की नासमझी और ब्‍यूरोक्रेसी की कुर्सी बचाए रखने के डर की वजह से गरीबों का क्‍या हाल हो जाता है इसका बेहतर नमूना है यह फिल्‍म।
राजनीतिक फायदे के लिए गरीबों को किस किस तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं। गरीब भी थोड़े से लालच की चाशनी में घुलता जरूर है लेकिन बचना भी जानता है। सपना देखना और उसे पूरा करने के लिए जुगत करने में कोई बुराई भी नहीं है, आखिर एक चाय बेचने वाला ही तो आज हमारे देश का प्रधानमंत्री है। वह यह बोलने में घबराता भी नहीं है कि उसने प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी जिंदगी में क्‍या-क्‍या कुरबानियां दी है। अब समय आ गया है और देश की जनता समझे कि वह महज मुहरा भर नहीं है। बल्कि इस देश पर और यहां की व्‍यवस्‍था पर उसका भी उतना ही हक है जितना इस देश के धन्‍नासेठों का। निर्देशक चंद्र प्रकाशजी ने बड़े ही हल्‍के फुल्‍के अंदाज में नेताओं को यह बता दिया है कि देश की समस्‍या क्‍या है और उसे समझा कैसे जाता है।

 जब भ्रष्‍टाचार और अपराध सिर से उपर होने लग जाता है तब किस तरह उसे मिटाने के लिए इसी समाज से कुछ लोग उठते हैं और सफाये में जुट जाते हैं। कानून की नजर में भले ही वे अपराधी होते हैं लेकिन समाज की नजरें उन्‍हें हीरो के रूप में ही देखती है। उंगली ऐसे ही चार दोस्‍तों के इर्द-गिर्द घूमती फिल्‍म है। चार दोस्‍त जिसमें से एक पत्रकार भी है वह किस तरह से देश में फैले भ्रष्‍टाचार को खत्‍म करने निकल पड़ता है। शहर की हर एक परेशानी पर चारों दोस्‍त विचार करते हैं और मिशन के तहत उस महकमें से जुड़े बड़े अधिकारी और नेता को उसी अंदाज में सबक सिखाते हैं जिससे आम जनता दो चार हो रही होती है। फिल्‍म कहीं भी कमजोर नहीं पड़ती दिखाई देती है। फिल्‍म में काफी दिनों बाद संजय दत्‍त्‍ को इमानदार पुलिस अधिकारी के रूप में देखकर अच्‍छा लगता है वहीं इमरान हाशमी अपने किसर वाली इमेज से निकलने का प्रयास जारी रखे नजर आते है। समाज में फैली ऐसी अराजकता को उजागर करती ऐसी फिल्‍में हर हफते रिलीज होती रहें तो यकीन मानिए बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। 

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