यादों के झरोखे से- सिरीज 1
जीवन चक्र में सुख दुख
दोनों समाहित है। कोई न तो जिंदगी भर सुखी रहता है और न दुखी। मुझे दिल्ली आए अब 18 साल हो चुके हैं। कई कई खटटी
मीठी यादें गाहे बगाहे मुझे झकझोरती रहती हैं। इन 18 वर्षों में मेरे साथ घटी कुछ
कड़वी यादों को तो मैंने कंट्रोल ऑल डिलीट कर दिया है लेकिन कुछ यादों को जिंदगी के सबक के रूप में गले से
लगा रखा है। मीठी यादें तो जिंदगी है मेरी। क्योंकि उसमें मेरी दो बेस्ट फ्रेंड
हैं जिनमें से एक सात समंदर पार है लेकिन कोई ऐसा दिन नहीं जब याद न करती हो----
दूसरी देश के किसी भी कोने में हो लेकिन रहती हमेशा साथ है।
नैन्सी और अनीशा तो जिंदगी
है मेरी। लेकिन लेकिन लेकिन इनके बाद भी मैंने अपनी जिंदगी में दोस्त बहुत कमाए
हैं। लोग पैसे कमाते हैं और मैंने दोस्त। ये वो दोस्त हैं जिन्होंने इन 18 साल
की जिंदगी में जब जब जिंदगी रूपी इस समुद्र में सुनामी आई है, जब जब मैं डूबने लगी
हूं उन्होंने मुझे एक हाथ से नहीं दोनों हाथों से संभाला है। कभी डूबती तो कभी
तैरती जिंदगी में मददगार रहे हैं। दोस्ती मेरे लिए एक दिन नहीं बल्कि जिंदगी है।
मैं अपने एक एक दोस्त की शुक्रगुजार हूं। रेडियो की दुनिया से लेकर अभी तक.....4
अगस्त 2015 की शाम ऐसी घटना घटी है जिसने मुझे एक बार फिर झकझोर दिया है। आज उन
तमाम दोस्तों का शुक्रिया की मुसीबत की घड़ी में भागे नहीं बल्कि मुस्तैदी से साथ
खड़े हैं और अपनी लाचारगी पर दुखी हो रहे हैं। बस उनसे ये कहना चाहती हूं---
जिंदगी इसी का नाम है--- समय है बदल जाएगा, शब्द के बाण जो दिल को छेद रहे हैं
कोशिश कीजिए वे बाण आप न चलाएं किसी के लिए भी। सारे दुख भर जाते हैं लेकिन शब्दों
के बाण जिनसे दिल छलनी हुआ हो उसे भरना मुश्किल होता है। व्यवहार मीठा रखिए, बाकी
सुख दुख तो जिंदगी के चक्र हैं। दुख के बिना सुख का मजा नहीं और सुख के बिना दुख
का मजा नहीं।
कॉलेज में ही थी कि मेरी किसी क्लासमेट ने मेरा
नाम बुलंद आवाज के लिए कॉलेज की नाटक मंडली में डाल दिया। नाटक मंडली से तो जैसे
तैसे पीछा छुड़ाया लेकिन आवाज की चर्चा कॉलेज की म्यूजिक टीचर तक भी पहुंचा दी
गई, फिर क्या था कॉलेज में कोई भी मौका हो बुला ली जाती। चूंकि आर्मी और पुलिस से
बचपन से लगाव था तो एनसीसी भी ले ली और ‘नेशनल चप्पल चोर’ बन गई।
चूंकि हिस्ट्री होती है
बेवफा रात पढ़ो सुबह सफा। तो पहले साल में ही रिजल्ट खराब। क्योंकि क्लास में
तो होती ही नहीं थी कभी नाच गाना तो कभी नाटक मंडली तो कभी लेफट राइट।
ओह इससे पहले एक और महत्वपूर्ण
और इंट्रेस्टिंग बात- कॉलेज में एडमिशन के दौरान आपका इंटरव्यू भी होता है। मुझे
नहीं पता था। मैं निपट गांव से आई थी। मुझे कुछ भी नहीं पता था। भाई कॉलेज लेकर
आया मेरिट लिस्ट में नाम था। कॉलेज की फीस जमा की गई और कहा गया उपर जाइए, वहां
आपका इंटरव्यू होगा। मैं उपर नहीं गई भाई के पास गई। बड़े भाई ने किसी तरह समझा
कर उपर भेजा। तीन मैडम बैठी थी दो के नाम याद हैं। अर्चना ओझा और मैडम मसीह। मैंने
अपना पेपर उनके आगे किया।
मसीह ने एक नजर पेपर देखा
और ओझा मैम की तरफ बढाते हुआ कहा- बिहार से आई हो-
मैंने कहा – जी,
वहां से क्यो आई हो
जी पढ़ाई करने,
क्या करोगी पढ के
जी पढ़ना है, अभी कुछ सोचा
नहीं है,
अच्छा शादी में आसानी
होगी, दिल्ली युनिर्विसटी में पढ़ी है,
मैं- पता नहीं,
तब तक ओझा मैंम मेरा एक एक
पेपर बहुत ध्यान से देख चुकी थीं, मार्क्स देखकर प्रभावित भी दीख रही थीं,
मार्कशीट देखते हुए उनके
एक्सप्रेशन ऐसी ही कुछ कह रहे थे
ओझा मैम ने सिर उपर करते
हुए पूछा
पूजा साइंस और आर्टस में
बहुत फर्क है, कैसे पढ़ोगी, वहां समझना है यहां रटना है-
मैंने मासूमियत से जवाब
दिया जैसे सभी पढ़ते हैं, जैसे आप पढ़ी होंगी,
शायद उन्हें जवाब भी अच्छा
लगा, मुस्कुराईं
अभी वो कुछ और पूछती की
मसीह मैम ने पूछा -गांधी जी कौन थे
मैं उनके वाहियात सवालों से
चिढ़ चुकी थी- मैंने कहा आपको नहीं पता कौन थे,
वो बोली मैं तो जानती हूं
कौन थे, तुम बताओ
मैंने कहा जो आप जानती हैं
वही मैं भी जानती हूं, बताने से उनका कुछ बदलेगा नहीं
ओझा मैम अपनी हंसी दबा रही थीं....
मसीह का गुससा सातवें आसमान
पर था, मेरे इस जवाब को उन्हेाने दिल से लगा लिया और मुझे तीन साल में मौका मिलते
ही बार बार बेइज्जत किया, जब जब मैं उनसे टकरा जाती, अपनी चिनचिनाती आवाज में
पूछतीं – पास हो गई क्या तुम
मैं घबरा जाती, गांव वाली
जो ठहरी, मैं कहती -आपका आर्शीवाद है,
चिढ कर कहती मेरा नहीं -अर्चना
ओझा का,
----
अब वापस इंटरव्यू वाले दिन
पर
इंटरव्यू में मसीह मैम और
वो तीसरी मैम शायद एबरॉल थी मुझे फेल कर दिया- इसकी फीस वापस की जाए----
मुझे कहा आपका एडमिशन कैंसिल कर दिया गया है,
आपको गांधी जी के बारे में नहीं पता है और आप मुझसे ही सवाल कर रही हैं----
मैं तो तब तक नहीं समझी थी
कि मेरा इंटरव्यू किया क्यों जा रहा है,
एडमिशन तो हो गया, फीस जमा हो चुकी है-
मैं मुह लटकाए दरवाजे से
निकलने से पहले ओझा मैम की तरफ इशारा करते हुए कहा ये पेपर भी ले जाउं क्या,
आसानी होगी
पता नहीं उन्हें मेरी
आंखों में, मेरे हाव भाव में क्या दिख रहा था
वो बोली तुम नीचे जाओ पेपर
वहां मिल जाएगा----मैं मुंडी हिलाती हुई निकलने लगी,
तो मसीह की कनकनाती आवाज
कानो मे आई, ---इस दरवाजे से नहीं उस दरवाजे से,--- उफफ ये बिहारी---
शायद ओझा मैम बर्दाश्त
नहीं कर पा रही थीं, मैं बाहर निकलकर जैसे ही पहले दरवाजे की तरफ पहुंची आवाज आई
पूजा, मैं आगे बढ़ गई
फिर आवाज आई ---पूजा मेहरोत्रा
मैं पीछे पलटी, ओझा मैम
मुस्कुरा रही थीं----मुझे बोली निराश मत हो, तुम् 15 तारीख को 10 बजे आना। यही
क्लास होगी तुम्हारी।
मेरी आंखों में आसूं थे----
ये बातें मेरे आज के लिए
जिम्मेदार हैं-क्यों ? वो अगली पोस्ट में
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